Sunday, February 10, 2019

दिल में इक पत्थर लिये चलते हैं

उसे काफी दिनों तक लगता रहा कि उसने ऑपरेट करवा लिया है और अब वो पत्थर वहां नहीं है, जिसे दिल कहते हैं। लेकिन उस दिन अचानक। तेज बारिश हुई थी। ठंड थोड़ी और। शाम के बीतने का वक्त रहा होगा।

वो यूं ही कहीं बैठा था। शहर के किसी एक जंगल में। चाय पी थी। और अचानक दर्द शुरू हुआ। उसे समझ नहीं आया। दर्द तो जाना-पहचाना सा था। अभी कुछ दिन पहले तक तो आदत में शुमार। लेकिन काफी दिन पहले अचानक से गायब भी हो गया था। अचानक नहीं शायद। धीरे-धीरे ही सही।

फिर आज। अचानक। क्यों। वो घबरा गया। हड़बड़ी में तेज चलने लगा। तेज चलने से दर्द कहां जाता है भला। वो जमा रहा।

कराह। आँसू। वो तेज गाने लगा। तेज गाने से दर्द कहां जाता है भला।

क्या दर्द ने फिर से उसे याद किया था। नहीं, नहीं। वो तो ऑपरेट हो चुका था। पत्थर निकाल कर उसने खुद ही तो बहुत दूर समुंद्र में बहाया था।

क्या पत्थर भी तैरना जानते हैं? वो तो काफी भारी होते हैं। भीतर पानी में खो जाते हैं। उन्हें तैरना कहां आता है भला। वो क्या खाक वापिस होंगे।

कहीं किसी हिचकोले में तो नहीं ऊपर आ गए। और फिर किसी ने किनारे में फेंक दिया हो उठाकर।

नहीं। नहीं। दर्द में आदमी क्या क्या सोचने लगता है। लेकिन ये दर्द। उसने तो ऑपरेट करवा लिया था।फिर अचानक। वो भाग कर समुंद्र की तरफ जाना चाह रहा था। उसने दौड़ लगायी। औऱ पहाड़ पर चढ़ गया।


उसे ऊंचाई से बहोत डर लगता था....

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