Tuesday, February 5, 2019

शहर में अपना तुम्हारा कोना

बहुत पहले उसने एक कैफे के बारे में बताते हुए लिखा था कि कैसे शहर का कोई कोई कोना आपका बहोत अपना सा हो जाता है। फिर क्या...
उस कोने को आप साझा करते हैं...और जब वो साझा करने वाला चला जाता है तो फिर आप उस कोने की तरफ जाने से बचने लगते हैं।


उसने उस शहर में रहते हुए ऐसे कई कोने बना लिये थे..जिन्हें वो अक्सर दूसरों से साझा किया करता...और फिर एक दिन वहां जाने से बचता।

धीरे-धीरे उसके सारे कोने खत्म होते गए। बहोत दिन बाद उसे भान हुआ कि कुछ कोने अपने लिये बनाने जरुरी हैं। वो अब अक्सर ऐसे कोने खोजने लगा जहां उसका आना-जाना अकेले का होता है। जहां वो सिर्फ एक सिगरेट जलाता है, एक कप चाय पीता है और सामने की दुनिया को टुक-टुक देखता है।

दुनिया जो अपने टेबल पर बैठी दुनिया की बात करती है। दुनिया जो लैंपपोस्ट की पीली रौशनी में भागी चली जाती है। दुनिया जो पुलों को क्रॉस करती चली जाती है- बिना ये सोचे कि उस पुल के नीचे एक नदी है और नदी का एक किनारा है जहां से बैठकर नदी-पुल और खुद को देखा जा सकता है।

वो अक्सर अब ऐसी जगहों में अकेले ही होना चाहता है।
वो जानता है। वो डरता है। वो साझा नहीं करना चाहता। उसे लगता है कि कहीं ये कोना भी यादों में खो न जाये।

क्या तुम्हारे शहर में भी तुम्हारा अपना कोना है? अपना सिर्फ अपना। जिसे तुमने किसी के साथ साझा नहीं किया...जिसे साझा करते हुए तुम्हें डर लगता है.. कहीं वो भी 'कैजुअल' जगह न हो जाये...?

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