Sunday, February 2, 2014

बैगा मिथकथाः बैगा और धरती


लोककथाएँ हम सबके जिन्दगी का एक टुकड़ा रहा है लेकिन कथाओं का यह वाचिक परम्परा अपने अंतिम समय से गुजर रहा है। ऐसे में जरुरी है कि इन्हें सहेज कर रखा जाय। खासकर, जनजातियों की लोककथाओं के साथ मुश्किलें ज्यादा हैं। इन कथाओं को बचाने या फिर इन्हें ऑनलाइन पाठकों तक पहुंचाने की एक कोशिश के तहत पहली कहानी एक बैगा मिथकथा को पोस्ट कर रहा हूं। आगे भी कोशिश जारी रहेगी.... (Raat ka Reporter)

बहुत पहले चारों ओर जल ही जल था। उस जल के ऊपर एक पुराना पत्ता तैर रहा था। उसपर भगवान बैठे रहते थे। ऐसे कई दिन  निकल गए। भगवान दिन-रात सोच में रहने लगे। मन में विचार करने लगे। यहां तो जल ही जल है। धरती कहीं है ही नहीं। भगवान ने अपनी छाती से मैल निकालकर एक कौआ बनाया। इसके बाद कौए को उन्होंने आदेश दिया कि- जा रे कौए। तुम जाकर धरती का पता लगाओ। कौआ उड़ चला। उड़ते-उड़ते कुँवर ककरामल नाम का कछुआ दिखाई दिया। उसके बड़े-बड़े डाढ़ थे। डाढ़ पर कौआ थककर बैठ गया। कौआ बोला- कुँवर ककरामल। तू झूठ मत बोलना, मुझे ईमानदारी से धरती का पता बता दे। मैं धरती की मिट्टी लेने आया हूं। यह सुनकर ककरामल कछुए ने कौए को डाढ़ में दबाया और पाताल लोक की ओर ले चला। धरती की मिट्टी या धरती राजा किचकमल ने दबाकर रख ली थी। माँगने पर राजा ने कौए को धरती की मिट्टी दे दी। ककरामल कौए को लेकर पाताल लोक से ऊपर आ गया। कौए ने धरती की मिट्टी भगवान को दी।

    भगवान ने एक बरतन बुलवाया, उसमें सर्प की गेरी बनाई और उसी की मथानी बनाई। उस मिट्टी को बरतन में डाला। मिट्टी डालकर उसे मथने लगे। अच्छी तरह मथकर भगवान ने उस मिट्टी को पूरे पानी में बिखेर दिया। तब पानी के ऊपर धरती बन गई। इसके बाद भगवान ने धरती पर चारों दिशाओं में घूम-फिर देखा। धरती इधर-उधर डोल रही थी। भगवान ने तत्काल लोहे का कार्य करने वाले अगरिया को बनाया। अगरिया ने चार बड़ी-बड़ी लोहे की कीलें बनाई। उसके बाद भगवान ने नागा बैगा बनाया। नागा बैगा ने धरती के चारों कोनों में कीलें ठोक दीं। तबसे पृथ्वी का हिलना-डुलना बन्द हो गया। तबसे बैगा धरती के रक्षक हो गए।

- वसन्त निरगुणे

(अगर आपके पास भी कोई लोककथा हो तो जरुर मेल करें- avinashk48@gmail,com

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