Tuesday, August 19, 2014

बड़ी बेटी

सबसे बड़ी बेटी थी और उसके ठीक बाद एक बेटा भी हो चुका था। इसलिए पैदा होते ही वो अपने बाप के लिए बोझ नहीं बनी थी।
बचपन के चार-पांच साल खूब लाड़-दुलार में बीता।
पिता गरीब थे लेकिन अपनी बड़ी बेटी को पढ़ाना चाहते थे। शायद यह लोभ भी था कि घर की बड़ी बेटी पढ़ लेगी तो उसके पीठ पीछे बेटा भी पढ़ने लगेगा। लेकिन उस जमाने में जब एक पैसे में चॉकलेट और एक रुपये में एक किलो चीनी-गेंहू खरीदी जा सके पढ़ाई के लिए पैसे जुटाना आसान न था।
बड़ी बेटी को हमेशा फ्राक के नीचे भाई वाला हाफ पेंट ही पहनने को मिला। दिवाली-दशहरा में भी, मेले-ठेले में भी- वही पुराना फ्रॉक। माँ का मायका थोड़ा ठीक था तो पढ़ने और पलने दोनों के लिए उसे भेज दिया गया- ननिहाल।
ननिहाल। मिथिलांचल का इलाका। सुखी-संपंन्न परिवार। मामा और मामी। नाना-नानी पहले ही मर चुके थे।
मामा बड़े प्यारे थे। पान खाते थे। पान तो मामी भी खाती थी लेकिन वो प्यारी नहीं थी। खूब सारा काम करवाती थी, खूब मारती थी, स्कूल नहीं जाने देती। घर में मछली बनता तो खाने नहीं देती। मेले-ठेले में लेकर नहीं जाती, घर में बंद कर देती। बुखार होने पर बंद अँधेरे कोठरी में छोड़ जाती।
लेकिन बड़ी बेटी जिद्दी थी। मानती ही न थी। चोरी-छिपे स्कूल जाती, ट्यूशन के पैसे न थे तो दोस्त से मांगकर नोट्स बनाती। वो हर रोज स्कूल जाना चाहती- शायद इसलिए भी कि लौटते हुए अपने सखी के घर पर चली जाती। मामी के डांट से, मार से थोड़े समय की राहत और भरपेट खाना दोनों मिल जाता।
मिथिलांचल में आम का बगीचा प्रसिद्ध है। मामा के पास भी था एक बगीचा। हर बारिश और आँधी के बाद आम गिरता। बड़ी बेटी को बोरा लेकर भेज दिया जाता वो आम बीछ कर लाती लेकिन उसे खाने को नहीं मिलता।
एक बार की बात है बड़ी बेटी को बुखार हुआ। वाइरल से भी ज्यादा तेज बुखार। मामी ने फिर अँधेरे कोठरी में बंद कर दिया। इस बार सहा न गया। वापस जाएगी तो पढ़ाई बीच में छूट जाएगा सोच बड़ी बेटी हिचकती रही और इधर उसका बुखार बढ़ता रहा।
एक दिन एक सखी आयी, देखा ये तो मर ही जाएगा। लौटी तो सीधे डाकखाने गयी। पोस्टकार्ड डाल दिया बड़ी बेटी के घर- अप्पन बेटी के लिवा लू, न त यहां मर जायत।
पिता ने पोस्टकार्ड पढ़ते ही गाड़ी पकड़ी। पहुंचे ससुराल अपने। जमीन-आसमान को एक कर दिया और अपनी बेटी को लिवा लाय घर। रुखी-सूखी खायेंगे लेकिन अपने घर पर ही जियेंगे और मरेंगे।
अब बड़ी बेटी अपने घर, अपने गांव, अपने माँ-पिता के पास थी। गांव में खाने का भी संकंट। बड़ी बेटी दूसरे के खेत में जाकर बथुआ तोड़ती, फिर छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। गांव में कोई हाईस्कूल नहीं था, तो प्रायवेट से जाकर बोर्ड का एग्जाम दे आयी अपने ननिहाल जाकर।
बड़ी बेटी ने खूब दुख झेले, खूब आँसू बहाए लेकिन चलती रही, रुकना उसके फितरत में था भी नहीं। फट्टे फॉर्क में ही जवानी आयी। उम्र सोलह साल। बाप को बेटी के शादी की चिंता। बड़ी बेटी के बाद दो और बेटी पीठ पीछे आ गयी थी। किसी तरह शादी के लिए एक रिश्ता आया।
लड़का जमींदार परिवार से। खूब कमाने वाला। खूब रुतबे वाला खानदान। इलाके भर में खानदान का रौब। लड़का इतना ईमानदार, इतना सीधा-सादा-सज्जन और ढ़ेर सारे आदर्शों वाला। किस्मत वाली है बड़ी बेटी- अक्सर गांव के लोग कहते।
खूब ढोल-बाजे के साथ बड़ी बेटी की शादी हुई। मोटरसाईकिल और कार उस जमाने में ऐसी गाड़ियों वाला पति। अहा। कितना सौभाग्यशाली है बड़ी बेटी। चलो दुख का अंत हुआ।
लेकिन बड़ी बेटी के संघर्षों का यह सिर्फ विराम था। अवसान बाकी था अभी। बड़ी बेटी के पति की कहानी फिर कभी। फिलहाल इतना परिचय कि वो कम्यूनिस्ट आंदोलन के बडे़ इलाके भर में मशहूर नेता हुए, उनके भाई भी। अपनी चालीसों बीघे जमीन पर मुसहरों को बसाकर शुरू किया भूमि आंदोलन।
बड़े-बड़े जमींदारों के जमीनों पर गरीबों का कब्जा होने लगा। लगा एक लाल सुबह आने को ही है। गांव के गांव, नये लड़के-बूढ़े-बच्चे सब सम्मोहित थे दोनों भाई से।
आंदोलन और पार्टी का काम बढ़ने लगा। इधर व्यव्साय भी। बडी बेटी अब खुद ही भरपेट नहीं खाती थी बल्कि गांव-गांव, पार्टी के कार्यकर्ता, गरीब, भूखा सबको बनाकर खिलाने लगी। अपने मायके से अलग ही दुनिया थी ये उसके लिए। उसे अच्छा लगने लगा। पति भी पढ़ने को प्रेरित करते और बडी बेटी ने बीए फर्स्ट ईयर में नाम भी लिखवा लिया। इस बीच तीन बच्चे भी हुए। सबकुछ सुखद। मायके की पूरी जिम्मेवारी भी बड़ी बेटी के पति ने उठा लिया। एक बेहतर जिन्दगी की तलाश पूरी होने को थी। बहुत सी ख्वाहिशे पूरी होने लगी थी और नये सपने बुनने लगी थी बड़ी बेटी।
लेकिन एक दिन फिर दुख ने बड़ी बेटी के उपर हमला किया। इसबार बेहद गहरा, ताजिन्दगी के लिए, लगा कभी न समाप्त होने वाला, अंतहीन निराशा और आँसूओं की धार वाला।
पति बीच मझधार में, सफर में कुछ कदम साथ चलने के तुरंत बाद साथ छोड़ चुके थे।
अब बड़ी बेटी बहुत बड़ी हो गयी थी। उसके जीवन का कागज एकदम कोरा और सेफद हो चुका था। सच में बड़ी बेटी बहुत बड़ी हो चुकी थी। तीन बच्चों की माँ, इक्कीस की उम्र और एक दम अकेले।। अंतहीन समय के लिए अकेले।
(लेकिन बड़ी बेटी की असली कहानी यहीं से शुरू होती है। एक खत्म हो चुके सफर के बाद की कहानी...संघर्षों, समाजों के खिलाफ खड़ी महिला की कहानी, जुनून और जज्बे की कहानी, अदम्य हिम्मत की कहानी। बड़ी बेटी की कहानी। लिखूंगा कभी जरुर। बड़ी बेटी की कहानी)

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