Sunday, May 25, 2014

गरमी में अपना देस बहुत याद आता है..........

लीची की तस्वीर गुगल से लेकर लगानी पड़े- वाकई बुरे दिन आ गए हैं


लीची मिल गयी। इस सीजन में पहली बार लीची का स्वाद चखा। यहां सिंगरौली में लीची। अपने देस से दूर बहुत दूर लीची का स्वाद। अचानक। पिछले कई दिनों से यहां के लोकल मार्केट में लीची खोजने का काम जारी था लेकिन यहां तो किसी को लीची के बारे में पता ही नहीं।

आज अचानक खाने के टेबल पर रखी पॉलिथिन में एक लीची दिख गयी- आखरी बची लीची। शायद इस साल की पहली और आखरी लीची। लीची का रस मुंह में और आँख में पानी। हम कमजोर लोग हैं जो हर चीज को सहेज कर, हर याद को संभाल कर रखने की कोशिश करते हैं।

अक्सर पास की चीज को हम महसूस नहीं कर पाते। नहीं तो कभी मैंने सोचा था कि एक दिन दूर देस में बैठकर इस लीची को याद करुंगा या फिर इस छोटी से लीची पर लिखूंगा।

एकाएक फ्लैशबैक में जा रहा हूं। लीची के स्वाद को याद कर रहा हूं। लीची से जुड़े अंतहीन किस्से याद आ रहे हैं। गरमी के दिनों में हम नानी गांव में होते थे। नानाजी के पास लीची का पेड़ हुआ करता था। हम सारे भाई-बहन दिन भर लीची के पेड़ पर बैठे मिला करते। अक्सर गांव के दूसरे बच्चे लीची चुराने आते। हम छिप कर औगरवाही (चौकीदारी) किया करते। कभी कोई पेड़ पर चढ़ने में सफल हो भी गया तो उसे चटाक से जमीन पर खींच कर लड़ जाते, हल्ला होता- चोर...चोर..वो बच्चे भागते और हम उनके पीछे। एक तरह से ये बच्चों के चोर-पुलिस खेल का थोड़ा-थोड़ा रियल वर्जन ही था।

तो हमारे नानाजी के रिश्तेदारों के यहां भी खूब लीची हुआ करती थी। उन दिनों हर तीसरे-चौथे दिन किसी न किसी बस से लीची का कार्टून बतौर बैना भेज दिया जाता था। आज नरहन से कल रोसड़ा से मामी के घर से। फिर हर दोपहर नाना-नानी, मामा और हम बच्चे बैठकर कार्टून खोलते- लीची निकाली जाती। बाजी लगायी जाती। मैंने पचास खाए, मैंने सौ। गिनती के साथ मार्किंग भी। नरहन वाले की लीची ज्यादा अच्छी है तो रोसड़ा वाली लीची इस बार थोड़ी कम मीठी है। लीची की बुराई को मायके की बुराई या फिर अपमान सा समझ लिया जाता। तभी तो रोसड़ा वाली मामी सफाई देती- इस बार बारिश नहीं हुई इसलिए मीठी कम है।

लीची के स्वाद से घर-गांव की अस्मिता जुड़ जाती।

नाना जी के यहां से भी लीची पेठाया (भेजा) जाता लेकिन कार्टून में कम ही- अक्सर पॉलिथिन में। उसी पॉलिथिन में जिसमें कभी मामी हाजीपुर से साड़ी खरीद कर लायी थी। एक तरह से शगुन या फिर औपचारिकता के लिए। नाना जी को ये सब रिवाज ज्यादा नहीं लुभाते थे शायद। उनकी चिंता थी कि हमारे नातिन-नाती, पोते-पोती भरपेट-भरमन खा ले फिर रिश्तेदारों को जाय।

नाना जी उन दिनों हमारे खाने-पीने को लेकर विशेष उत्साहित होते। लीची खाकर पानी नहीं पीना है, ब्रश कर लिये तो लीची क्यों नहीं खा रहे हो जैसे हजार नसीहतें घर के आंगन में गूंजा करती।

नानीगांव से जब हम लोग अपने घर लौटते तो बोरी भर लीची हुआ करती। आस-पड़ोस वाले को बांटते हुए बड़ा प्राउड फील होता- हमारे पास सैकड़ा के हिसाब से खरीदी गयी लीची नहीं है, बेहिसाब बोरी भरी लीची है- का प्राउड।

स्कूल खत्म हुए तो साथ में गर्मी की छुट्टी भी। फिर हमलोग पटना में रहने लगे डेरा लेकर। उस साल से आजतक जा नहीं पाये दुबारा लीची खाने नानी गांव। हर साल नानी बुलाती रही लेकिन कॉलेज और करियर ने गांव-घर के मोह को तो छुड़ाया ही साथ में लीची को भी हमसे दूर ले गया। लेकिन नाना जी कहां मानने वाले। उस उम्र में भी लीचियों का कार्टून लेकर पहुंच जाते पटना वाले डेरा पर। खुद न आ सके तो किसी और के हाथ ही थमा दिया एक कार्टून लीची।


जबतक पटना में रहा लीची टाइम से मिलती रही। जिस समय हमारे डेरा में लीची आती दोस्त यार का मजमा लगा रहता। कॉलेज से निकलकर सारे दोस्त-यार लीची खाने रुम पर आते। कभी-कभी तो पूरा कार्टून खत्म करके ही हमलोग उठते।

लेकिन पटना छूटने के बाद सब खत्म हो गया। बिहार के गांवों से निकलने वाले लड़के पटना तक जाने-अनजाने अपनी मिट्टी, अपने गांव, गांव के दूध-दही, आम-लीची, सब्जी, आटा, चावल, गेंहू, ककरी, तरबूजा, अस्पताल के बहाने पटना आए मामा-मामी, अपने बेटे का बोर्ड में नंबर बढ़वाने के लिए पैरवी करवाने आए चच्चा-फूफा इन सबसे जुड़ा रहता है लेकिन पटना से निकलने वाली ट्रेन पर जब वो बैठता है तो सिर्फ पटना ही नहीं छूटता उसके साथ-साथ गांव-घर के ये सौगात भी छूटते चले जाते हैं।

इसलिए दिल्ली बिल्कुल पराई सी लगती है। और यहां सिंगरौली मध्यप्रदेश में जब मैं अकेला हूं तो ये सब चीजें ज्यादा शिद्दत से याद आती हैं। याद आती है लीची और आम। आम का टिकोला। हर रात बारिश और तेज आँधी के बाद सुबह-सुबह बोरी लेकर आम के बगीचे में जाना। टिकोला चुनकर लाना।  याद आता है नानी का सिलोट में पीसकर टिकोला की चटनी बनाना। याद आता है आम के बगीचे में ही दोस्तों के साथ नमक में टिकोला को सटा-सटा कर खाना।

याद आता है दोपहर बारह बजे आम के पेड़ पर आने वाले भूत का डर। याद आती है वो लड़की जो हर दोपहर हमारे साथ आम के बगीचे में बैठकर शादी करने और आने वाले कल की चिंता में पांच-छह टिकोले खा जाती थी। याद आता है गरमी के दिनों में आम के बगीचे में ही खाट लगाकर एक टॉर्च के सहारे रात बिताना, याद आता है घर वालों से छिपकर पोखरी (तालाब) में नंगा नहाना।

गरमी में अपना देस बहुत याद आता है..........

7 comments:

  1. nandkishor jinagalMay 25, 2014 at 12:56 AM

    बारिशों के झुंड की बिछुड़ी भेड़ें हैं तीखी धूप में
    बरसती ये बूंदें
    कि अमलतास के पीले और गुलमोहर के लाल,
    मेरे घर में दो फूल इन दुपहरियों में भी खिलते हैं.

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    1. बेहतरीन लाइन कही आपने

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  2. कभी कोई पेड़ पर चढ़ने में सफल हो भी गया तो उसे चटाक से जमीन पर खिंच कर लड़ जाते, हल्ला होता- चोर...चोर..वो बच्चे भागते और हम उनके पीछे। एक तरह से ये बच्चों के चोर-पुलिस खेल का थोड़ा-थोड़ा रियल वर्जन ही था।

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  3. Sukriya dost sach me ye khushnuma ..kahani thoda chhu gaya....

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