Friday, April 11, 2014

हर रोज खुद को राख में बदलते चले हम

कबीर के राम याद आ रहे हैं

"हमें समय-समय पर अनेक ‘वादों’ और आदर्शों ने उम्मीदें दी थीं, जिन पर ठिठुरते हुए हमने अपने हाथों को सेंका था। आज उनके कोयले मद्धिम हो चले हैं, सिर्फ राख बची रह गयी है जो फूँक मारने से कभी दायीं तरफ जाती है, कभी बायीं तरफ- जिस दिशा में जाती है हम उस तरफ भागते हुए कभी दक्षिणपंथी हो लेते हैं, कभी वामपंथी। लेकिन राख राख है, उसके पीछे अधिक दूर नहीं भागा जा सकता है। आखिर में अपने पास लौटना पड़ता है।
ऑस्ट्रियन लेखक और पत्रकार कार्ल क्रौस ने एक बार कहा था, “मनुष्य को अन्त में वहीं लौटना पड़ता है, जहां से वह शुरू होता है- इसी में उसकी सार्थकता निहित है।”
इस शुरू को पकड़ने के लिए हमें सदैव अपनी स्मृति और भाषा की अँधेरी जड़ों में रास्ता टटोलना होगा"।

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निर्मल वर्मा

पढ़ते-पढ़ते निर्मल वर्मा के लिखे इन शब्दों तक पहुंच गया। नहीं, नहीं।  मैं किसी निराशा में नहीं। न ही विचारधाराओं से मोहभंग तक पहुंचा हूं लेकिन कुछ है जो पिछले कुछ दिनों से मथ रहा है।
शायद इसलिए निर्मल के इस लिखे में खुद का भविष्य भी देख रहा हूं। डर रहा हूं।


कई चीजें चल रही है भीतर। विचारधारा, विचाराधारा की दुकानदारी। मैं किसी पर सवाल नहीं उठा रहा, खुद को ही कटघरे में खड़ा कर रहा हूं।


हर रोज एक ऐसी दुनिया देखता हूं जहां निराशा, हताशा, मजबूरी के सिवा और कुछ नजर ही नहीं आता।

लेकिन कुछ रोज ऐसा भी आता है जब अचानक से सामने एक भयानक रौशनी में नहलायी दुनिया आ खड़ी होती है।
उसका सामना करना मुश्किल नहीं होता, जितना लौट कर इस अँधेर दुनिया में आना और वहां की स्मृति को समेटे रखना।


सोचता हूं कुछ दिन परमानेंट यहीं रह जाऊं। सिंगरौली।
दिल्ली को स्थगित करना जरुरी है।

कबीर के राम को पढ़ रहा हूं। शायद कुछ अदृश्य-सा मिल जाय......

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