Friday, June 12, 2015

सुसाइडल नोट्स

"उदासीनता मृत्यु है. एक दिन ऐसा आएगा कि हम अपने को बचाते-बचाते अचानक देखेंगे कि बचाने की कोशिश में सब कुछ गँवा दिया है. यह ज़िन्दगी का हमारे लिखने से सही प्रतिशोध होगा- न कम न ज़्यादा. सही."- निर्मल वर्मा
पिछले कुछ दिनों से उदासीनता तारी है। कुछ-कुछ वैसा ही जैसा जनवरी और फरवरी की सर्दियों में दिल्ली के सड़कों पर लंबे-लंबे वॉक करते हुए रहा था। बेवजह ही। रोज की चीजों के प्रति बेमन बना रहा था।
उस समय लगता रहा कि हो सकता है सर्दी का असर हो। या फिर लिखने के मोह का। लेकिन जून में। जेठ की तपती दोपहरों में दफ्तर में बैठे हुए चाहे कमरे में आधी रात को ठंडक की तलाश में लेटे हुए ठीक वैसी ही उदासी तारी है। अब तो ऐसा लगने लगा है कि ये उदासीनता दुनिया से प्रतिशोध का ही एक फॉर्म है। उदासीनता के जड़ों को तलाशों तो वो भी कुछ स्पष्ट सा नहीं दिखता। कुछ धुंधलका सा छाया रहता है। आँखों पर बहुत जोर डालो तो अकेलेपन जैसा कुछ प्रतीत होता है। लेकिन वो भी अजीब है। अकेलापन। आसपास दिन और रात  दोस्ती, प्रेम, रिश्तों से ही घिरे रहने के बाद का यह अकेलापन बहुत अजीब सा है।
फिर धुंधलके के बावजूद पास जाकर उस अकेलेपन को टटोलने की कोशिश करो तो समझ आता है कि सारा दुख न कह पाने का है। उससे भी ज्यादा क्या कहना है ये समझ न आने का है। कोई भी ऐसा नहीं जिसे हाथ पकड़कर बैठा लिया जाय और सबकुछ कह दिया जाय। कोई भी ऐसा नहीं जिसे कहने के सारे जोखिम उठा लिये जाये। मन में हमेशा गलत समझे जाने का खतरा बना रहता है।
और फिर जब कुछ कहने का कथ्य खुद भी पता न हो तो ये डर कितना और बढ़ जाता है न। इस बीच जबरदस्ती दुनिया से भागने का ख्याल भी आता रहा है। इस बीच गायब हो जाने का मोह बढ़ा है। अपने ही अस्तित्व को खत्म करने के प्रति अट्रैक्ट हुआ हूं। जी चाहता है सारे बाहरी संपर्क खत्म हों। जी चाहता है एक सुबह उठो और दुनिया के लिये अजनबी हो जाओ। लेकिन इन सबके लिये हिम्मत नहीं पड़ता।
कभी-कभी तो यहां तक कि लगने लगता है इस बोसीदा सी जिन्दगी को अलविदा कहा जाय। मानो जितना जीना था, जितना भोगना था, जितना कहना और लिखना था। पूरा हो चुका है। अब कुछ भी नया नहीं। स्थिरता के सिवा। जिसे कहा जाना चाहिए, जिसे भोगने का लोभ बचा हो, जिसे जीने का मोह बाकी हो।
लगता है। एक ही उम्र में कई सारी जिन्दगी बीताने के लिये मजबूर किया जा रहा हो। और एक जिन्दगी जीने के बाद दूसरे के प्रति मोह न बचा हो। मृत्यु से पहले अक्सर लोगों को जीवन के प्रति मोह करते देखा है, लेकिन जीवन के भीतर ही एक जीवन-सा जी लेने के बाद दूसरे की दहलीज में घुसने की हिम्मत शायद बची नहीं है।
कुछ दिनों बाद 25 साल का होउंगा। कितना कुछ था जो किया जाना था इस 25 से पहले। कितना कुछ था जिसे जिया जाना था इस 25 से पहले। लेकिन सबकुछ हाथ में रखे रेत की तरह फिसलता चला गया।
क्या मुमकिन नहीं है कि आने वाले 25 और साल ऐसे ही गुजर जायें और मैं 50 की उम्र में फिर से यही सब कहते हुए किसी पार्क के खाली बेंच पर बैठा मिलूं।
अब मन होता है कह दूं...अगला 25 साल। अगला एक जीवन और। न। नहीं हो पायेगा। छूट्टी करो। 
निर्मल ने सही कहा है लिखने के मोह में खुद को खोते चले जाना ही जीवन का हमारे खिलाफ असली प्रतिशोध होगा।

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