Monday, April 11, 2016

मौतों का हेडलाइन

केरल में सौ से ज्यादा लोग मारे गए। आज के सभी अखबारों की हेडिंग बना दी गयी। घरों में बैठे लोग आह-ओह-उफ करते हुए इस खबर को पढ़ भूल भी जायेंगे। हमारी संवेदनशीलता बहुत सिकुड़ गयी है। हमारा दूसरों के लिये दुख बहुत सिकुड़ गया है। यह अब तभी जागता है जब कोई मौत-घटना अखबार की हेडलाइन बनती है। कितने लोग मारे गए, 50, 100, 200 या 300 सौ। कोई फर्क नहीं पड़ता। यह मौत सिर्फ एक नंबर है, एक संख्या, इसमें जितनी चाहो आप बढ़ाते-घटाते रहो। हम अपने-अपने आरामदायक कुर्सियों पर बैठे-बैठे इन मौतों पर अफसोस भर जाहिर कर देंगे। बहुत हुआ तो एक-दो ट्टविट या फेसबुक पोस्ट कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेंगे।
मौतों की बड़ी-बड़ी संख्या अब रोजमर्रे की बात है। हमें इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। मौत के अगले दिन अखबार में खबर बनती है। हम दुख जताते हैं। फिर अगले दो-चार दिन स्टोरी की फॉलोअप की जाती है। हम जिज्ञासवाश उसे पढ़ते हैं, दुख नहीं जताते। कुछ नेताओं के दौरे होते हैं, कुछ लाख रुपये मुआवजे की घोषणा होती है, चुनावी रणनीति के हिसाब से बयान दिये जाते हैं, एक-दूसरे पर आरोप लगाया जाता है और फिर सबकुछ वक्त के साथ खत्म हो जाता है। इस बीच वे मौतें हमारे जेहन से गायब हो जाती हैं। फिर इसी तरह किसी और दुर्घटना का हम इंतजार करते हैं और फिर यही सर्कल दुहराता रहता है।
हमने मौतों को संख्या के हिसाब से देखना शुरू कर दिया है। हमें बहुत फर्क नहीं पड़ता। हम इन मौतों पर किसी से सवाल नहीं पूछते। हम उन संगठनों, उन राजनीतिक दलों, सरकारों से कोई सवाल नही पूछते, जिनकी जिम्मेवारी होती है कि वो ऐसी घटनाओं को रोके। ऐसी घटनाओं के घटने से पहले इनपर रोक लगाने की व्यवस्था करे। हम किसी से कोई सवाल नहीं पूछते। हमारे कई नेता, ठेकेदार मानते हैं कि यह सब भगवान का प्रकोप है। हम आप भी यही समझ लेते हैं। कलियुग में भगवान इस धरती का विनाश करना चाहते हैं। अपनी, सरकार की, व्यवस्था की सारी जिम्मेवारी हम उस कथित भगवान पर डाल निश्चिंत हो जाते हैं।
हम अपने रोज की जिन्दगी में इतने मश्गूल होते जा रहे समाज का हिस्सा हैं, जो भयानक रूप से व्यक्तिवादी हो चला है। लेकिन हम भूल जाते हैं कि ऐसे ही किसी मंदिर में हुए आतिशबाजी की वजह से, किसी फ्लाईओवर के टूटने की वजह से हमें अपनी जान गंवानी पड़ सकती है। हम भी इस अव्यवस्था के शिकार हो सकते हैं। हमारा भी कोई अपना किसी धमाके की वजह से अपनी जान गंवा सकता है। यह सोचने का वक्त है, क्यों आतिशाबाजी करवाने मंदिर प्रशासन के पक्ष में खड़े हैं? क्या सिर्फ इसलिए कि वो किसी एक खास धर्म का मामला है। क्या धर्म की आड़ में इतने सारे लोगों की हत्याओं को छिपाया जा सकता है? क्या इन हत्याओं को किसी भी मायने में आंतकी हमलों में मारे गए लोगों से कम माना जा सकता है? क्या इस घटना को बेगूनाहों का कत्लेआम क्यों नहीं माना जाना चाहिए? क्यों नहीं हम दोषियों पर कार्रवाई के लिये सड़क पर उतरे? क्यों नहीं इस घटना के लिये किसी की जिम्मेवारी तय की जा रही है?
क्या सैकड़ों लोगों की मौत से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता? क्या हम उस दिन का इंतजार करते हुए अपने-अपने घरों में अंसवेदनशील होकर बैठे रहेंगे जब हम भी ऐसे ही किसी मानवीय गलतियों की वजह से धमाके का शिकार हो मारे जायेंगे?
मुझे अपने लिये डर लगने लगा है। मैं ऐसी मौत नहीं मरना चाहता, जिसके लिये किसी की जिम्मेवारी तय नहीं की जाये- एक ऐसी मौत जो हुई तो आदमी की भयानक गलतियों-लापरवाहियों से लेकिन उसे भगवान का प्रकोप कह भूला दिया जाय।



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