Monday, July 9, 2018

सबकुछ तसल्ली की राह पर है...

सारी कोशिशें तसल्ली की राह पर हैं..
कुछ यादें हैं, जिन्हें भूलने का चाह कर भी मन नहीं होता। वो फ्लैशबैक में जबरदस्ती भी जाती रहती हैं। जैसे एक याद पटना के गंगा किनारे का। दो लड़के बैठे हैं। दूर रोशनी में गांधी सेतू जगमगा रहा है। दोनों लड़के उस शाम में बस उस बड़े से पुल को देखने बैठे हैं। एक लड़का शहर छोड़ कर जाने वाला है। पुल पर चलने वाली गाड़ियों की रोशनी एकसाथ चलते हुए रौशनियों का नदी सा बनता दिखता है।

एक लड़का है जिसके लिये दूसरा पैसे बचाकर शहर के मंहगे रेस्तरां में जाता है। दोनों वहां बैठकर खाते हैं। अजीब सा सुख महसूस करते हैं। दुख है लड़का चला जायेगा शहर से हमेशा के लिये। दो साल बाद दूसरे लड़के को भी शहर छोड़ना ही था।

क्या पता था एक जगह वे फिर से मिलेंगे। वे मिले। वो लड़का था तो जिन्दगी में एक निश्चिंतता थी। सबकुछ उसके कंधे पर छोड़कर पड़े रहने का भरोसा था।

ताजुब्ब होता है एक वक्त में जिसके लिये जान देने सी हालत रहती है, उसे दुबारा लौटकर आवाज क्यों नहीं लगा पाते हैं हम।

आजकल कुछ लिखता नहीं, क्योंकि जब भी लिखने बैठो, पुरानी यादें ही बचती हैं। नयी यादों का तमाम कोशिशों के बावजूद न बन पाना....कितना जीवन को कठिन और कठोर बना देता है।

खैर,

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