Monday, July 29, 2013

एक मुड़ा सा ख्वाब का टूटनाः सिंगरौली डायरी



शाम में छत पर खड़ा था। एक तरफ पहाड़ एकदम जिंदा-सा तो दूसरी तरफ कोयला खदानों के लिए खोद कर मिट्टी बना दिए गए ओवरबर्डन के पहाड़। कुछ दूरी से रेल की छक..छक..छुक..छुक की आती आवाज। बड़े-बड़े खुले डिब्बों में ढोए जा रहे पहाड़-एकदम काले से।
हमारे घर के आस-पास और पीछे का काफी हिस्सा खाली मैदान-सा खेत पड़ा है जो बिल्कूल पहाड़ से सटकर ही खत्म होता है। मैं छत पर खड़ा-खड़ा फ्लैशबैक में चला जाता हूं।
सबसे पहली तस्वीर उस दिन जब पहली बार पहाड़ को देखा था। एक वैद्य जी से दिखाने के लिए जम्मूई जाने की कड़ी में लखीसराय के पास दिखा था। घर ने बताया- मरा हुआ पहाड़ है, जिंदा पहाड़ में जीते-जागते पेड़-पौधे औऱ पानी निकलता है। वहीं से जिंदा पहाड़ देखने की ललक रह गई। मन हमेशा उन जिंदा पहाड़ों के बीच पहुंच जाता। हिन्दी फिल्मों में पहाड़,नदी के दिखाए इमेज ही कल्पना में फोटो बनकर आते रहते। मन हमेशा पहाड़ों के बीच होने को करता रहता।
बारहवीं के बाद रांची गया था। संत जेवियर कॉलेज में एडमिशन लेने वास्ते। रास्ते में पहली बार  जिंदा पहाड़ दिखा था- एकदम खालिस जिंदा- पेड़-जंगल-जल से भरा-पूरा। हुआ कि यहीं उतर जाएं बस से। रह जाएं इसी किसी झोपड़ी में अपना बिस्तर डाल। मन हमेशा पहाड़ों को लेकर रोमांटिक होता रहा शायद यही वजह थी कि आज भी जेएनयू में सबसे अच्छी जगह पीएसआर ही लगती है मुझे। लेकिन जेएनयू वाला पहाड़ मरा हुआ है-एकदम मुर्दा-सा सन्नाटा वाला।
काफी दिनों तक पहाड़ का प्रेम चलता रहा। हाल तक जब अखबारी नौकरी में था पटना में। मन आज-कल होने लगा था-कि चलूं छोड़ नौकरी किसी पहाड़ के गांव में आशियाना टिका लूं। खैर,  नौकरी आपको मारती है-जान से नहीं, तड़पा-तड़पा के। मैं भी तड़पता रहता आया हूं।
अचानक ही काम मिला जंगल-जमीन बचाने के लिए लोगों के संघर्ष में साथ देना। बिल्कूल पहाड़ और जंगल के बीच रहने वालों के साथ काम करने का ऑफर। -ना- करने का सवाल कहां था। चला आया।
जिस दिन बनारस से सिंगरौली के लिए इंटरसिटी पर बैठा था- उत्साह मन के इस कोने से उस कोने तक डोलता रहा। रास्ते में बस पहाड़ ही पहाड़, जंगल ही जंगल। लो ये पहाड़, ये जंगल, ये नदी। लगा इतना कुछ कैसे समेट पाउंगा।
लेकिन ये सब तस्वीर का आधा फटा-मुड़ा भाग ही था। पहाड़ की जिन्दगी इतनी आसान नहीं थी- बिल्कूल नहीं। शुरुआती दिनों में पहाड़-जंगल घूमने जाता तो अच्छा लगता। अब जब वहां जीने जाता हूं तो तस्वीर का आधा फटा-मुड़ा भाग भी खुलने लगा है।
अव्वल तो जंगल में रहने की कठिनाईयां। दूसरे इन जंगलों-पहाड़ों को खोद-खोद कर कोयला,बॉक्साइट निकालने वाली लोकतांत्रिक सरकार-कारपोरेटी कंपनियां। अक्सर जंगलों के ठीक बीच में, पहाड़ों के उपर ऐसे गांवों में होता हूं, जहां फोन का नेटवर्क नहीं। अस्पताल, स्कूल जैसी सुविधाओं के लिए कोई स्पेस नहीं। ये लोग इस लोकतांत्रिक देश का हिस्सा तभी हो पाते हैं जब सरकारों को पता चलता है कि इनकी जमीन के नीचे अपार खनिज संपदा भरी पड़ी है। अचानक से आनन-फानन में विकास रुपी पहिये को इनके गांवों में धकेल दिया जाता है। यहां की कठिन जिंदगी हम मैदान वालों के लिए रोमांटिक लाइफ होता आया है। पिकनिक और सैर-सपाटे के लिए अक्सर हम पहाड़ों की तरफ दौड़ते रहे हैं लेकिन सच्चाई है कि पहाड़ी जीवन सिर्फ पिकनिक की रंगनियों से नहीं बनती। यहां के लोग हर रोज अपने जीने के लिए संघर्ष करते हैं। कभी जंगली जानवरों से तो कभी सरकारी अमलों से।
कभी-कभी लगता है जिंदगी में फिर से जगा हूं। बचपन के ख्वाब अब परेशां नहीं करते। जिंदगी की तल्ख सच्चाईयां भी झकझोर नहीं पाती। एक मैदान लड़का पहाड़ी लोगों की कोमलता को देख-देख और कठोर और रुड होता जा रहा है। वजह की तलाश अभी करने का समय नहीं।
फिलहाल कुछ अस्पष्ट सा खाका है कुछ दिमाग में और हां, नौकरी हर जगह जानलेवा ईलाज की तरह ही होती है।
खामोशःःःः

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