Tuesday, November 4, 2014

वाया दिल्ली

इन्टरनेट से साभार


पहली बार दिल्ली पार्टी रैली में आना शुरू किया था। उन दिनों दिल्ली आने से पांच दिन पहले ही तैयारी शुरू हो जाया करती थी। 
रैली में जाना है की घोषणा होते ही तैयारियां भी शुरू कर दी जाती थी। कोई ठेकुआ बनाता। किसी घर में नमकीन और भुंजा बन रहा होता। कहीं सत्तुआ तैयार किया जाता तो कहीं लिट्टी।
कोई पूरी और आलू का भुजिया बनाता। अमूमन ये रैलियां दिसंबर-जनवरी में हुआ करती। इसलिए कंबल का भी इंतजाम करना होता। 

गांव से निकलने से पहले की रात को  100-150 लोगो के लिए पटना से लेकर दिल्ली तक खाने का इंतजाम किया जाता।
फिर हम सब पटना में जनसाधारण में लद जाते। हमें झंडा बैनर पकड़ा दिया जाता। टिकट नहीं ली जाती कहने की जरुरत नहीं। कभी सामान रखने की साइड वाले रैक पर मुझे सुला दिया जाता तो कभी न जाने किस तकनीक से दो सीटों के बीच चादर को बाँध उसमे झुला दिया जाता।
क्या विधायक क्या जिला परिषद और मुखिया। सब के सब घर से आये पोटली को खोल एक दूसरे से बांटते खाते दिल्ली पहुंचते।
पहली बार दिल्ली आया था तो रामलीला मैदान में रुका था। दिसंबर के महीने में पता चला था दिल्ली की सर्दी क्या होती है। हम सबने जनवादी गीतों के साथ-साथ दिल्ली की सर्दी पर भी गाने गाए थे।
 उन दिनों राजधानी में मेट्रो शुरू ही हुई थी। सबसे ज्यादा मेट्रो ने लुभाया भी था। नई दिल्ली से विश्वविद्यालय तक के सफ़र को कम से कम 5 बार तो किया ही होगा।

अब दिल्ली आता हूं, अब दिल्ली से जाता हूँ। महीने में कई बार दिल्ली से गुजरता हूँ। कभी उ़ड़कर, कभी सबसे तेज ट्रेन में चढ़ कर, लेकिन बिना किसी एहसास को लिए। शुन्यता से भरे एक सफ़र की तरह बस- आता हूं और लौट जाता हूं।
यात्राओं के तरीके बदल गए हैं। लोग बदल गए हैँ। पूरे रास्ते बोगी में हँसते-बतियाते-लड़ते-गुस्साते-दुख, सुख बांटते चाचा-मामा-मामी-चाची-दीदी-भैया और न जाने कितने रिश्तों में लिपटे अनजाने लोग तक की जगह चुपचाप पेट फूलाए, मुंह चिपकाए, अपने-अपने स्मार्ट फोन में गर्दन घुसाये सह (यात्रियों) ने ले लिया है।

जहां चुपचाप टुकुर-टुकुर ताकते रहिये।  किराये का पैसा हो तो प्रमियर कटाईये और चलते रहिये।

 #lonesome Traveler 

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