Wednesday, November 26, 2014

पर्यावरण के मोर्चे पर सौ दिन की सरकार

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में नयी केन्द्र सरकार ने अपना पहला सौ दिन पूरा कर लिया है। इस बीच सौ दिन पूरे होने पर सरकार के पक्ष और विपक्ष में कई सारे तर्क और कार्यवाही चर्चा में रहे। इस नयी सरकार से लोगों को बहुत उम्मीदे हैं, इसी उम्मीद का परिणाम मोदी सरकार को मिले प्रचंड बहुमत में भी देखा गया। खुद नरेन्द्र मोदी ने चुनाव से पहले समावेशी विकास के सपने दिखाये थे, लेकिन पिछले सौ दिन में सरकार ने पर्यावरण के मोर्चे पर जिस तरह से निर्णय लिये हैं या फिर निर्णय लेने की तैयारी में है, उससे साफ है कि पर्यावरण और उसके आसपास सदियों से चली आ रही सभ्यता को बचाने में सरकार की रुचि नहीं है।

फिलहाल खबर आ रही है कि केन्द्र सरकार औद्योगिक परियोजनाओं और कथित विकास के दूसरे कामों के लिये होने वाले जंगलों की कटाई के लिये आदिवासियों और जंगलवासियों की अनिवार्य सहमति को हटाने पर विचार कर रही है। मीडिया खबरों के अनुसार सरकार वन अधिकार अधिनियम में संशोधन के लिये संसद जाये बिना ही इस प्रावधान को हटाने के लिये रास्ता बना रही है। अगर ऐसा होता है तो बड़ी परियोजनाओं के लिये सदियों से अपनी जीविका के लिये जंगलों पर निर्भर जंगलवासियों की आम सहमति जरुरी नहीं रह जाएगी।

यह उल्लेखनीय है कि ऐतिहासिक वन अधिकार कानून को संप्रग सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में लागू किया था। 2006 में पारित और 2008 से लागू इस कानून को लाते वक्त कहा गया था कि यह कानून सदियों से अन्याय के शिकार और अपने अधिकारों से बेदखल रहे जनजातियों और जंगलवासियों को उनका अधिकार देने का प्रयास है। तत्कालीन संप्रग सरकार ने इस कानून को अपनी सरकार की महत्वपूर्ण उपलब्धि बताते हुए इसे जनजातियों के भविष्य के लिये बदलावकारी कदम बताया था, लेकिन वर्तमान केन्द्र सरकार इन दलीलों को नजरअंदाज करते हुए वनाधिकार कानून को कमजोर करने की कोशिशों में जुट गयी है। इस मामले को लेकर सरकार ने 31 जुलाई को प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव की अध्यक्षता में पहली बैठक आयोजित की थी। इसके बाद संबंधित मंत्रालयों की कुछ और बैठके भी हुई हैं। खबर के मुताबिक अक्सर ग्राम सभा की अनिवार्य सहमति को खत्म करने की दलील देने वाले कोयला मंत्रालय और भूतल परिवहन मंत्रालय के अतिरिक्त जनजातिय मामलों के मंत्रालय और विधि मंत्रालय भी इन बैठकों में शामिल होने लगे हैं। इस पूरे मामले में विडंबना है कि जिस पर्यावरण मंत्रालय पर पर्यावरण को बचाने का दायित्व है वही मंत्रालय औद्योगिक परियोजनाओं के हित को ध्यान में रखते हुए वनाधिकार कानून को कमजोर बनाने की पहल कर रहा है। हालांकि कई सारी परियोजनाओं को चालू करने के लिए वनाधिकार कानून को कागजी खानापूर्ती तक ही समेटने की कार्यवायी भी हुई जैसा कि पोस्को और महान में फर्जी दस्तावेजों के आधार पर वनाधिकार कानून को लागू दिखाया गया, लेकिन साथ ही पिछले साल वेदांता के मामले में इस कानून ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इसी कानून के आधार पर नियामगिरी में ग्राम सभा की सहमति ली गयी, जिसमें ग्रामीणों ने वेदांत को नकार दिया था। इन्हीं सब कारणों से बड़े खनन परियोजना वाली कंपनियां इन प्रावधान को हटाने की मांग कर रहे हैं।


पिछले दिनों मोदी सरकार ने अपने एक और निर्णय से पर्यावरण और लोगों के अधिकारों को महत्व न देने का संकेत दिया, जब नर्मदा बांध की ऊँचाई को बढ़ाने का निर्णय लिया गया। इस ऊँचाई के बढ़ने से करीब 2 लाख लोगों के उपर विस्थापित होने का खतरा मंडराने लगा  है। इसके साथ ही अब 2 से 10 हजार हेक्टेयर सिंचाई परियोजनाओं के लिये केन्द्र द्वारा अनुमति की आवश्यकता को खत्म कर दिया गया और इतनी ही नहीं अगर 2000 हेक्टेयर से कम सिंचाई परियोजना के लिये पर्यावरण मंजूरी के प्रावधान को ही खत्म कर दिया गया। इसी तरह सरकार ने प्रदुषणकारी वर्गीकरण में परिवर्तन लाते हुए वन अभ्यारणों के पांच किमी के दायरे में मध्य आकार के प्रदुषणकारी उद्योगों को अनुमति दे दिया है, जबकि इस मामले में खुद उच्चतम न्यायालय ने 10 किमी की दूरी को मानक बनाया है। सरकार ने सबसे प्रदुषित औद्योगिक शहरों में नये उद्योग पर लगे प्रतिबंध को हटा लिया है, इससे गुजरात, मध्यप्रदेश के सिंगरौली, उत्तरप्रदेश में सोनभद्र जैसे सबसे प्रदुषित शहरों में एक बार फिर से नये उद्योग लगाये जा सकेंगे।


पिछले कुछ दिनों से नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) लगातार पर्यावरण के मुद्दे पर मुखर रही है। अब नयी सरकार एनजीटी को कमजोर करने के लिए कानून में बदलाव की तैयारी शुरू कर दी है। औद्योगिक घरानों के रास्ते को आसान बनाने के लिये सरकार नयी भूमि अधिग्रहण कानून में भी 19 संसोधन करने की योजना बना रही है जिससे सामाजिक प्रभाव आकलन, मुआवजे और आम सहमति जैसे मुद्दे को आसानी से हल किया जा सके। इसी तरह जीएम फसलों को लेकर सरकार ने कमर कस ली थी लेकिन संघ के सहयोगी संगठनों के विरोध के बाद उसे अपने कदम पीछे हटाने पड़े। दरअसल पर्यावरण को नजरअंदाज करके जिसपर लोगों का जीवन ही नहीं बल्कि लाखों आदिवासियों की जीविका निर्भर है कथित विकास के दौड़ में हिस्सा लेने का ही नतीजा है कि खुद पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावेड़कर बयान देते हैं कि उन्होंने अपने 100 दिन के कार्यकाल में एक भी पर्यावरण मंजूरी को नहीं लटकाया। ऐसे बयान देते वक्त वो भूल जाते हैं कि पर्यावरण मंत्रालय को पर्यावरण और जंगलों को बेहतर बनाने के लिये बनाया गया है, न कि सिर्फ विभिन्न परियोजनाओं को हरी झंडी देने के लिए। सिर्फ तीन महीने में जावेड़कर ने 240 परियोजनाओं को पर्यावरण मंजूरी दी है।


एक सच्चाई यह भी है कि 1980 के बाद केन्द्र सरकार ने विभिन्न परियोजनाओं के लिए 11,29,294 हेक्टेयर वन भूमि की मंजूरी दे दी है और अब हमारे पास 69,790,000 हेक्टेयर वन भूमि ही है जो राष्ट्रीय वन नीति द्वारा अनिवार्य 33 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र के मुकाबले सिर्फ 21.23 प्रतिशत ही है। स्पष्ट है कि अब हम और अधिक वनों को खत्म नहीं कर सकते।


मोदी सरकार के 100 दिन पूरे होने के बाद चार सदस्यीय उच्च स्तरीय समिति बनाया गया है, जिसे पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमन्यम नेतृत्व दे रहे हैं। ये समिति पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986, वन (संरक्षण) अधिनियम 1980, वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972, जल (संरक्षण) अधिनियम 1974 और वायु (संरक्षण और नियंत्रण) अधिनियम 1981 में आवश्यक संशोधन के लिये सुझाव देगी जिससे नयी परिस्थितियों में आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके। सरकार के अबतक के रुख से स्पष्ट है कि यह आवश्यकता किस तरह के हितों की पूर्ती करेगा और पर्यावरण के लिये कितना नुकसानदेह साबित होगा।
अभी हाल ही में हमारे प्रधानमंत्री ने शिक्षक दिवस के मौके पर देश के बच्चों को संबोधित करते हुए जलवायु परिवर्तन की अवधारणा को ही नकार दिया। जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक समस्या को सिरे से नकार देना किसी भी देश के मुखिया के लिये शुभ संकेत नहीं है। कई पर्यावरण संगठनों ने इस बात के लिये उनके बयान की आलोचना भी की है क्योंकि जलवायु परिवर्तन एक सर्वमान्य समस्या के रुप में स्थापित हो चुका है। आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन हमारी अगली पीढ़ी के लिये सबसे खतरनाक समस्या होने वाली है। हमारी सरकार को इस बात का विशेष ख्याल रखते हुए नीतियों को प्रकृति के अनुरुप बनाने की जरुरत है, जिससे मोदी के ही सपने समावेशी विकास को पूरा किया जा सके।
यह लेख सोपान पत्रिका में छप चुका है।

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