Monday, April 13, 2015

नरबदा के बीचों बीच



नरबदा के बीचों बीच बहुत सारे पत्थर न जाने कब से खड़े हैं। इस बीच नदी में न जाने कितना पानी बह गया। न जाने कितना पानी हर रोज उन पत्थरों को छू कर निकलता चला गया। रोज़ ब रोज़ पानियों का विशाल समूह जो सतपुड़ा के जंगलों और विंध्य के पहाड़ों से होते हुए अमरकंटक से निकल गुजरात चला जाता है। इस क्षण भर का पानी और पत्थर का मिलन छोड़ जाता है अकेलापन। मानो ये पत्थर अकेले होने, अधूरे दोस्त बनाने को ही शापित हों।
उस दिन जब नाव से इन पत्थरों से होकर निकला तो न जाने क्यों ये बिलकुल अपने से लगे। मेरे ही स्तिथियों में जीते हुए।
आधे अधूरे दोस्त बनाते..निपट अकेला..ज़िन्दगी से न जाने कितने पानी..दोस्त को बहते देने वाला ..उन्हें जाते चुपचाप देखते रह जाने वाला एक अभिशप्त अपूर्ण आदमी।

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