Tuesday, April 14, 2015

"बाजार" शब्द का बाजार


बाजार सत्य है, शिवम है और सुन्दर भी। भाषा कोई भी हो बाजार एक ऐसा शब्द है जो हर जगह खुद को बनाये हुए है। या यूं कहिये बाजार की कोई एक भाषा नहीं या हरेक भाषा में बाजार ने अपना स्पेस बना लिया है।

बाजार जितना झूठ है, उतना ही खरा सच भी। बाजार से प्यार करने वाले बहुतेरे मिल जायेंगे और नफरत करने वाले भी कम न मिलेंगे, लेकिन मुश्किल ये है कि बाजार शब्द से नफरत करने वाले भी बाजार में ही खड़े हैं। इस शब्द की आलोचना में न जाने कितने कागज कारे किये गए, न जाने कितनी ही कवितायें लिखी गयी, इस एक शब्द बाजार ने साहित्य को कई महान रचनाएँ दे दी, लेकिन बाजार का बाजार कभी रुका नहीं। ये निरंतर अपनी गति से आगे बढ़ता रहा और आज सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान की भूमिका में स्थापित हुआ।

ऐसा नहीं है कि बाजार शब्द पहले नहीं था। प्राचीन समय में भी बाजार का उल्लेख मिलता है। एक ऐसा बाजार जहां जरुरत के सामान के लिये लोग अपने समान की अदला-बदली किया करते, जहां मुद्रा बाजार का आधार नहीं बना था। उस समय बाजार जीवन का एक बेहद मामूली सा हिस्सा रहा होगा। 21वीं सदी के ग्लोबलाइजेशन में पैदा लिये हम जैसे लोग अब उस स्थिति की केवल कल्पना मात्र कर सकते हैं जब बाजार लोगों के जीवन का एक सूझ्मतर हिस्सा रहा होगा, जब लोगों के बीच भावनाओं, रिश्तों, भावुकताओं और संवेदनाओं के लिये ज्यादा समय रहा होगा, लोग बाजार शब्द को छटांक भर भी भाव नहीं देते होंगे। हम आप अब बस कल्पना कर सकते हैं कि बिना बाजार के जीवन कितना सुकून भरा रहा होगा। जीवन में कहीं पहुंचने की कोई आपधापी न रही होगी। जीवन एक बेलौस सी मस्त, झूमती-गाती अपने ही गति में मंद-मंद आगे बढ़ती जाती होगी।

लेकिन परिस्थितियां बदल गयी और बाजार निरंतर बढ़ता चला गया। ऐसा न था कि आज से कुछेक सौ साल पहले बाजार नहीं था, बाजार कि वजह से मचने वाले मारकाट न थे, दो देशों के बीच युद्ध न था, अपना बाजार फैलाने वाले साम्राज्यवादी देश न थे। सब थे। लेकिन हिन्दी में, हिन्दी समाज में बाजार ने पिछले पचास सालों में अपना सबसे ज्यादा पैठ बनाया है। जब से ग्लोबल बाजार हमारे हिन्दी में आ टपका है तब से यही एक शब्द है जो लेखकों से लेकर आलोचकों तक को परेशान कर रखा है।

आज हर कोई अपना बाजार खोजता है। एक थे निराला जिन्होंने बाजार की आलोचना करते हुए खुद के लिये सौ रुपये की नौकरी का जुगाड़ नहीं कर पाये, लेकिन आज परिस्थितियां बदली हैं। आज जो लेखक बाजार का सबसे ज्यादा आलोचना करता है, वो सबसे मंहगे दामों में बिकता है। बाजार शब्द ने उसे लाखपति-करोड़पति बनाया। बाजार शब्द ने ही उसे फर्श से अर्श पर पहुंचाया। प्रकाशक भी लेखक के बाजार को तौल कर ही किताब छापते हैं। ग्लोबल होते इस शब्द बाजार ने ही हमें बताया कि अमरिका और भारत का एक गांव एक ही है और हम सब ग्लोबल गाँव का हिस्सा हैं। इस ग्लोबल गांव में भावनाओं, संवेदनाओं और एहसासों से भरी दुनिया का कोई मोल नहीं। यहां सबकुछ खरीदने और बेचने का खेल है।

बाजार महानगर में है, नगर में है और अब गांवों तक भी पहुंच रहा है। लोगों का सबसे खूबसूरत शब्द भले बाजार होता जा रहा है लेकिन बाजार शब्द जहां-जहां पहुंच रहा है, लोगों की खूबसूरती खत्म हो रही  है।

This article published in Dainik Bhaskar

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