Thursday, April 16, 2015

सरकारों का फाइव स्टार पॉलिटिक्स


6 अप्रैल 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के सर्वोच्य न्यायाधिशों को संबोधित करते हुए सलाह दिया कि उन्हें फाइव स्टार एक्टिविस्टों से प्रभावित होने से बचना चाहिए। इस बयान के तीसरे दिन गृह मंत्रालय ने पर्यावरण के लिये काम करने वाले वैश्विक संगठन ग्रीनपीस के सारे बैंक खातों को बंद कर दिया। अगले दो दिन बाद पर्यावरण मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट को प्रोजेक्ट क्लियरेंस संबंधित मामलों में दखल न देने का सुझाव दिया।

पिछले हफ्ते की इन तीन घटना से थोड़ा पहले जायें तो हम देखते हैं कि बजट सत्र में मोदी सरकार द्वारा पारित भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर खासा बवाल हुआ। अभी भी देश भर के किसान इस मुद्दे पर सरकार के विरोध में सड़क पर उतर गए हैं। लगातार जंतर-मंतर से लेकर राज्य की राजधानियों तक किसान अपना विरोध प्रदर्शन जता रहे हैं। विपक्षी पार्टियां भी इस विरोध में शामिल हो गयी हैं। देश के सामाजिक संगठन न सिर्फ भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का विरोध कर रहे हैं बल्कि वनाधिकार कानून सहित पर्यावरण के नियमों में ढ़ील देने की मोदी सरकार की कोशिश का भी लगातार कर रहे हैं।

स्पष्ट है कि मोदी सरकार चारों तरफ से घिर चुकी है। उसपर कथित विकास परियोजनाओं को जल्दी से जल्दी क्लियर करने के लिये कॉर्पोरेट सेक्टर का भारी दबाव है। ऐसे में सरकार ने सामाजिक संगठनों को सॉफ्ट टारगेट बनाना शुरू कर दिया है। प्रधानमंत्री के फाइव स्टार एक्टिविज्म और गृह मंत्रालय द्वारा ग्रीनपीस पर की गयी कार्यवायी को इसी क्रम का एक हिस्सा माना जा सकता है। दरअसल सरकार इस बात को अच्छी तरह समझती है कि कथित विकास परियोजनाओं को स्थापित करने की राह में स्थानीय समुदाय द्वारा किया जाने वाला जमीनी आंदोलन सबसे बड़ा रोड़ा है। गाहे-बगाहे इन आंदोलनों को सामाजिक कार्यकर्ताओं के अलावा न्यायालय और मीडिया को समर्थन भी मिलता रहा है। ग्रीनपीस की ही कार्यकर्ता  प्रिया पिल्लई को जनवरी में विदेश जाने से रोक दिया गया था, जिसे बाद में मीडिया ने बड़ा मुद्दा बनाया और न्यायालय ने सरकार को फटकार लगाते हुए असहमति को सम्मान देने की बात कही थी। सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा बड़े परियोजनाओं, मानवाधिकार उल्लंघनों को लेकर लगातार जनहित याचिका दाखिल की जाती रही है जिसपर न्यायालय भी समय समय पर कार्यवाई करती रही है। इसलिए केन्द्र सरकार सबसे पहले इन विकासकी राह के इन बड़े रोड़ों को हटाना चाह रही है। पिछले दिनों वीके सिंह द्वारा मीडिया पर की गयी टिप्पणी और नियंत्रण की मांग को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है।

सरकार बड़ी-बड़ी परियोजनाओं को क्लियर करने की हड़बड़ी में है। इसी हड़बड़ी में एक के बाद एक गलती करती जा रही है, जिससे देश भर में असहमति, सरकारी नीतियों की आलोचना और आंदोलनों पर नये सिरे से बहस छिड़ी है। वर्तमान में देश की सराकर जिस विकास मॉडल पर चल रही है वो दरअसल कुछ ऊपरी लोगों तक सिमट सा गया है, जबकि इसका सबसे ज्यादा खामियाजा किसानों और आदिवासियों को भुगतना पड़ा है। इस विकास मॉडल ने किसानों और आदिवासियों को ही अपनी जमीन और जंगल पर अधिकार छोड़कर उन्हें विस्थापित होने पर मजबूर कर दिया है ऐसे में समावेशी विकास की मांग करने वाले सीविल सोसाइटी की संख्या बढी है जो लगातार सरकारों से सबके लिये स्वच्छ पानी, ऊर्जा, साफ हवा जैसी मूलभूत सुविधाओं की मांग कर रही है।

ऐसे में सरकार द्वारा असहमत होने के अधिकार को दबाने की कोशिश, कॉर्पोरेट हित में लगातार कानूनों में बदलाव जैसे मुद्दों ने स्पष्ट संकेत दिया है कि बाजार हित में चलाये जा रहे आर्थिक नीतियों की आलोचना को सहन करने का संयम सरकार में नहीं है। भले सत्ता वर्ग फाइव स्टार एक्टिविस्टों को टारगेट कर रही है जबकि सच्चाई है कि सरकार और देश के राजनीतिक दल खुद फाइव स्टार पॉलिटिक्स में व्यस्त हैं। एक तरफ लगातार बड़े-बड़े कॉर्पोरेट के साथ गलबहियां की जा रही हैं, उन्हें टैक्स में छूट दिया जा रहा है, भारी सब्सिडी मुहैया करायी जा रही है तो दूसरी तरफ किसानों-मजदूरों को मिलने वाली सब्सिडी में भारी कटौती करने की योजना बनायी गयी है। मनरेगा को लेकर संशय बरकरार है, देश के प्रभु वर्ग को फाइव स्टार सुविधाएँ देने के लिये किसानों से जमीन छिनने का खाका बनाया जा चुका है, बेमौसम बारिश से बर्बाद हुए किसानों को मुआवजे के रूप में कहीं 3 रुपये तो कहीं 70 रुपये का चेक बांटा जा रहा है। ऐसे में अगर सीविल सोसाइटी सरकार की जनविरोधी नीतियों की आलोचना करती है तो उसपर राष्ट्रविरोधी होने का चस्पा लगा दिया जाता है।
सच्चाई है कि आज सरकार की छवि एक कॉर्पोरेट हितैषी के रूप में बनकर उभरी है जिससे असहमति और जिसकी आलोचना करने का भारत के प्रत्येक नागरिकों का अधिकार और कर्तव्य है।


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