Monday, May 25, 2015

जयपुर के कॉफी हाउस में बैठे-बैठे

कॉफ़ी हाउस एक शहर से दूसरे शहर को जोड़ता है। जिस शहर में कॉफी हाउस है वो अजनबी शहर भी अपना सा लगने लगता है। एक ऐसी जगह जहां आप अकेले भी घंटों बैठे रह सकते हैं। अपने पसंदीदा राइटर के लिखे में सर झुकाये। कॉफ़ी हाउस कभी अकेला नहीं होने देता।
आसपास बैठे लोग कुछ पत्रकार, कुछ लेखक, कोई थिएटर कलाकार या आपस की हँसी में डूबा एक जोड़ा।
सब के सब अपने से लगते हैं। अपनी दुनिया के लोग। अकेले होकर भी अपनों के बीच होने जैसा एहसास।
इतना अपनापन जितना अपने इस कमरे में भी फिलहाल महसूस नहीं कर पा रहा।
अकेले कमरे में सबकुछ कितना निर्जन हो जाता है। मानों एक अजनबी दुनिया है जहां मेरी खरीदी चीजें भी मुझे नहीं पहचान पा रही हैं। कमरे में रखा हर सामान अपना अधूरापन लिए मुंह लटकाये है.. मोबाइल में पड़ी पुरानी तस्वीरों को देखते हुए.. यादों में भींगते हुए.. शहर दर शहर की तस्वीरों से गुजरते हुए ढेर सारा अकेलापन भीतर भर जाता है और मैं निराशा में डूबते उतरते अपने घर पहुँच जाता हूँ। घर की याद। घरवालों की याद।
मोबाइल फोन ने भले शहर दर शहर की खूब तस्वीरें उतारी हो लेकिन घर को कैद करना भूल गया सा लगता है।
कभी कभी जो हमारे पास है उसे हम कितना गैर जरुरी बना लेते हैं जबकि उसकी भरपाई म्यूजिक, फ़िल्म, किताबें, कॉफ़ी, सिगरेट और कमरे की सुस्त जर्द पीली दीवारे भी नहीं कर पाती।
और अकेलापन तकिये में मुंह छिपाये पड़ा रह जाता है।

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