Monday, November 2, 2015

एक बुढे आदमी की डायरी 1

सर्दियों में उसे शहर में बिताये दिन कम ही याद आते हैं, अपनी प्रेमिकाओं के साथ अलग-अलग कैफ़े में भटकते हुए पी गयी कॉफ़ी भी कम ही याद आती है। बियर बार में दोस्तों के साथ बिना पिये बितायी गयी ठंडी आधी रातें भी उसे याद नहीं। जवानी के दिनों में शहर के इस छोर से उस छोर तक नापी गयी दूरी की भी कोई याद नहीं बची है। लेकिन उसे गाँव याद आता है। गाँव के दक्षिण में बहने वाली नदी की याद आती है। हल्की-हल्की धूप में अकेले ही बंसी डाल मछली पकड़ने बैठना अच्छे से याद है। अपने घर से दूर खेतों के बीच खुले आसमान में पतंग उड़ाना याद रह गया है। उसे याद है सर्दियों में सुबह का नाश्ता निपटा आँगन में बीछा दी गयी चटाई और कोर्स की किताबो में छिपा पढ़ी गयी गन्दी कहानियों वाली पत्रिकाएं। उसकी स्मृतियों में अब भी बची हैं वो ठण्डी शामें जिनमे अलाव के पास बैठ रेडियो पर सुना करता था समाचार संध्या। उम्र के अंतिम सर्दियों को वह इन्हीं यादों के सहारे बिताना चाहता है।लेकिन वह नहीं याद करना चाहता बीच का वक्त। वह अपनी यादों से गायब कर देना चाहता है बचपन के बाद और बुढ़ापे से पहले का ढ़ेर सारा वक्त: एक बेईमान वक्त।

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