Monday, November 2, 2015

अकेले की डायरी #2

हमारा जीवन एक स्वप्न की तरह है। हम जीवन में किसी खास क्षण को बीत जाने देते हैं और बीत जाने के बाद हड़बड़ा कर उठ बैठते हैं। लेकिन तब तक उस स्वप्न के कुछ चिन्ह भर बचे रह जाते हैं।
आज दुपहर कुछ ऐसे ही इक सपने के बाद नींद टूटी है। नींद के बाद आँखे ठीक से खुली नहीं हैं। सबकुछ हड़बड़ाहट में है। अफरातफरी में है।
अब उन बीतते जा रहे सपनों के बारे में याद करने की कोशिश भी करो तो एक धुंधलका सा दिखता है, जहाँ कुछ भी स्पष्ट नहीं। टुकड़ों में कुछ सीन याद आते हैं जो आधी-अधूरी  कहानी सी है, जिसके पूरा होने का किसी को ठीक ठीक पता नहीं।
बस इतना पता है उस सपने के बाद सबकुछ वैसा ही नहीं रह जायेगा। न वैसी सर्दी होगी, न दिसम्बर और न जनवरी।
कितना कुछ है जो बदलने के कगार पर है और वह वहीं खड़ा रहना चाहता हूँ- सपने के उसी मुहाने पर।

No comments:

Post a Comment

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...