Monday, November 2, 2015

दो साल पुरानी एक वर्ड फाइल

स्कूली पढ़ाई ननिहाल में रह कर किया है। वैशाली के एक गांव में। आज भी जो थोड़ी-बहुत आदमी होने की तमीज है या फिर बेगूसराय वाले इफेक्ट से बचा रह गया हूं तो उसकी सबसे बड़ी वजह यही नानीगांव में रहना है।
नानीगांव में हम तीनों भाई-बहन रहते थे। नानाजी- मामा-नानी और मामी।
अपने बचपन को याद करता हूं तो फ्लैशबैक में सबसे पहले नानाजी के साथ किसी दिवाल के पीछे छिपे होने और चोरिया-नुकिया खेलने का सीन ही आता है।
खूब हंसाना, कहानी-किस्सा सुनाना नानाजी को आज भी पसंद है।
लेकिन हर दिन एक-सा नहीं होता था।
कभी-कभी नानाजी सारे काम निपटा आँगन में बैठ जाते। हम तीनों( खासकर दोनों भाई) को बुलाया जाता। ऐसा हफ्ते में एकाध-बार होता, जब उन्हें हमारी शिकायत या हमारा कोई काम गलत होते दिख जाता था।
दो घंटे-तीन घंटे हम वैसे ही आँगन या ओसारे पर खड़े रहते। नानाजी हमें समझाने से शुरू कर अचानक डांटने सा लगते- हमने अपनी जिन्दगी में ये गलती की- अभी ऐसा करोगे तो आगे क्या होगा- दो-चार साल मेहनत कर लोगे तो जिन्दगी अच्छी कटेगी- बड़े हो जाओगे तो पछताओगे कि क्या नहीं कर पाये- और न जाने ऐसी ही कितनी सारी बातें।
दरअसल उन्हें डर होता- डर कि बिना पिता के ये बच्चे अपनी जिन्दगी में क्या करेंगे-कहीं ये गलत रास्ते पर न चले जायें- ये डर उनकी बेबसी तक में पहुंच जाया करता।
बेबसी कि काश, ये बच्चे मेरी सुन लें- काश, इनका ...काश, इन्हें...। वे बहुत कुछ चाहते-एक साथ।
हर बार इस डांट सेशन के दौरान कई बार हमें नानाजी पर गुस्सा भी आता लेकिन ज्यादातर बार हम और खुद में मजबूत होते...हमारे भीतर एक नयी तमन्नाओं का संचार सा होता- उस हफ्ते हम दो घंटे ज्यादा पढ़ते- दो घंटे ज्यादा व्यवस्थित होते-शायद नानाजी को दिखाने को ही सही।
आज भी नानाजी से फोन पर बात किया करता हूं। जो हूं उसके लिए उन्हें ही श्रेय जाता है और जो नहीं हो पाया हूं उसका जिम्मेवार भी खुद ही हूं।
जिन्दगी के कुछ मोड़ पर ऐसे नानाजी की कमी खलती है लेकिन यहीं आसपास जब उनसा कोई मिल जाता है- तो फिर से तम्मनाएं जगती हैं।
थैंक्स बहुत फॉरमल सा शब्द रहा है मेरे लिए। शायद, पिता-सी भूमिका वाले फरिश्तों के लिए।
(हर कुछ न लिखने की चाहत के बावजूद लिख रहा हूं क्योंकि कई बार चीजें बाहर निकले तो अच्छा लगता है)

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