Thursday, February 25, 2016

जा रे झूठा

 बहुत अरसा हुए कोई अच्छा संगीत सुने। कॉफी पीना अच्छा लगता है। लेकिन अाजकल वहां भी नीरसता है। कोई इस समय को अँधेरा बता रहा है। मुझे उम्मीद लग रही है। तमाम व्यक्तिगत चिन्ताओं ने अलविदा कह दिया है। अब आर या पार।
आज अचानक किस्सा याद आया- बहुत छोटे में क्लॉजअप का एड आता था टीवी पर। दिखाया जाता कि कैसे दांत चमकने लगते हैं- उस टूथब्रश के इस्तेमाल के बाद दाँतों से चमकने की आवाज आती ।
मैं दिन भर में पाँच बार इस्तेमाल करने लगा था उन दिनों। कई दिन तक करता रहा और उचक-उचक बाथरूम के शीशे में देखता रहा। एक दिन बेसिन पर खड़े हो शीशे में दाँत देखने लगा। बेसिन टूट चुका था। भड़ाम।
आजकल ऐसे ही बहुत से झूठ के चंगूल में फंसा पाता हूं। झूठ के कई विज्ञापन बाजार में हैं। विचारों का झूठ। राजनीति का झूठ। दोस्ती और प्रेम का झूठ। हर तरफ झूठ ही झूठ।

लेकिन आज भी झूठ और सच का अंतर नहीं कर पाता। प्रभावित हो जाता हूं। दाँत चमकाने की कोशिश करता हूं और फिर ठगा जाता हूं। कभी किसी विचार के झूठ को अपना बनाता हूं, कभी किसी राजनीति के झूठ को।

हर बार ठगे जाने के बाद भी झूठ से मोह नहीं छूटता। अब तो यह भी लगने लगा है कि झूठ बिना जीवन कितना फीका और नीरस हो जाये। झूठ बने रहो। जीवन चलते रहो।

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