Saturday, February 27, 2016

रात आधी बीतने के बाद

आजकल चारों तरफ इतनी नफरत पसरी है कि मैं सारी भाषाओं को भूला देना चाहता हूं। नहीं समझना चाहता तमाम भाषाओं में नफरत भरे शब्द।
डरता हूं कहीं मेरे भीतर ही न जमती जाय नफरत का एक मोटा सा थाक।
मार-काट और हिंसा के सारे फॉर्म से डर लगने लगता है। जीवन में हिंसा की क्रूरता को हर रोज महसूस करता हूं- एक हिंसा जो चौबीस साल पहले की गयी थी, आजतक आधी रातों को भी डरा जाता है। जानता हूं हिंसा की कोई घटना चौबीस साल बाद भी लौट आती है और आधी रात बिस्तर से उठा रुलाती है।
इसलिए डरता हूं-बहुत डरता हूं। डर लगता है।
डर लगता है जब किसी को कहते सुनता हूं कि कर दो गोलियों से छलनी- बीच चौराहे पर खड़ा कर। डरता हूं जब सुनता हूं मेरे सुविधाजनक जिन्दगी से कहीं दूर देश के किसी कोने में हर रोज लोगों को गोलियों से भूना जाता है बड़े आराम से। या इस देश से भी दूर कहीं बच्चों पर गिराये जाते हैं बम।
उन सबके दुख में, हर पिता खो चुके बच्चे में, हर पति खो चुकी औरत में मेरा दुख चुपके से जाकर खड़ा हो जाता है।
मैं उन सारे विचारों को चिल्ला कर नकारना चाहता हूं जो हिंसा और सिर्फ हिंसा की वकालत करते हैं, जो नफरत के अलावा  और सभी आदमी होने के गुणों को भूलाने की बात करते हैँ।
कई बार मैं फँसा महसूस करता हूं। कहीं किसी अँधेरे से सुरंग में। जहां अनजाने में मुझे धकेल दिया गया है।
इस अँधेरे में मैं कोई रास्ता टटोलने की कोशिश करता भी हूं तो चौबीस साल पहले की गयी हिंसा की वह घटना माँस का एक लोथड़ा बनकर हाथों में अटक जाती है। मैं एक बार फिर उस सुंरग में धकेल दिया जाता हूं- जहां गूंजती रहती है रुलाई से पहले की सिसकियां।

 

1 comment:

  1. जब भी तुम्हें पढ़ता हूँ, लगता है जैसे दिल पढ़ रहा हूँ। उन धड़कनों में जो महसूस होता है, उन ईमानदारीयों में दुख है, किसी के खो जाने की स्मृति है। तुम इतना मत खोओ.. बस ख़याल रखो अपना।

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