Monday, February 29, 2016

बीच रात 3 बजे

तीन बजे के बाद सोने जाने की कोशिश करता हूँ। ठीक चार बजे डर कर बिस्तर पर बैठ जाता हूँ। बीच के एक घंटे में ढ़ेर सारे डराने वाले सपने आते रहे। घर की खिड़की से एक साये को ललकारने, कहीं अँधेरे जगह में फंसने जैसे सपने टुकड़े टुकड़े में आते रहे।
अभी डरकर बैठा हूँ तो हाथ खूब ब खुद मोबाइल पर टाइप करने लगा है।
क्या सच में इतना हिंसक समय हो चला है- कि आदमी अपने कमरे में भी सुरक्षित न रहे। या सब वहम है।
या अकेले रहते हुए। अकेले पड़ जाने के बाद का दिमागी फितूर।
घर-माँ सब याद आ रही है। कोई नहीं है जिसे इस वक़्त एक फोन घुमा लिया जाए। थोडा जी हल्का किया जाए। ये सब लिखने का कोई फायदा! नहीं जानता हूँ लेकिन अपने लिए इस वक्त। इस समय को दर्ज करने के मोह से नहीं बच पा रहा।
ये शहर। ये ज़िन्दगी। ये अकेलेपन। ये अँधेरे में दुबका कमरा और फ्लाइट की शोर। हमें बीमार कर दे रहा है।
उफ़। कितना भयानक है सबकुछ।

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