Friday, October 13, 2017

अपनो से दूर होने की अजीब सी जिद्द

सुनो दगाड़िया,
खूबसूरत चीजें ज्यादा दिनों तक नहीं टिकती, कम से कम मेरे हाथों में तो नहीं। या तो वो खुद चली जाती हैं या फिर मैं जाकर उन्हें बिगाड़ आता हूं।

ये भान तो बहुत पहले से था मुझे, लेकिन तुम्हारे जाने के बाद ये लगभग पक्का हो गया। अजीब होता जा रहा हूं। एक शून्य सा लगता है अंदर। बहरहाल, बाहर भी कम उथलपुथल नहीं है। सबसे करीबी दोस्त ने कल मैसेज किया हम अब दोस्त नहीं बने रह सकते। तुम अपने दुख नहीं साझा कर रहे।
मैं चुप रहा, दोस्ती शायद खत्म हो गयी, लेकिन मैं शून्य में हूं। कोई फर्क नहीं पड़ रहा। कुछेक और अपने मुझसे परेशान हो चले हैं, मनाते हैं, रोते हैं, और फिर चुप होकर चले जाते हैं। मैं शून्य में ताकता रहता हूं। कोई फर्क नहीं पड़ रहा।

क्यों, ये समझ नहीं आता। कहीं अंदर दम घुटने जैसा लगता है। इस दफे अजीब सी जिद्द पाल ली है। सबसे दूर जाने की।

इधर सोच रहा था, तुम होते तो इस बात पर बहस करता, उस काम को साथ करते।
कहीं बाहर जाते, ये करते वो करते...कितना कुछ किया जाना रह गया...
खैर,
फिर कभी

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