Friday, October 20, 2017

पहाड़ों से लेकर खेतों तक तुम याद आये..

सुनो दगड़िया
अभी रात को पंजाब से लौटा हूं। तीन दिन में 900 किलोमीटर बाइक से। खेत-खेत, शहर-कस्बा घूमता रहा। अच्छा अनुभव था, लेकिन एक छोटा सा डर भी।

इस बीच तुम बहुत याद आये। तुम होते तो तुम भी डरते। मुझे मना करते, बाइक से नहीं जाउँ, ऐसा कुछ बोलते। हर दूसरे घंटे तुम्हारा फोन आता और मैं गुस्सा दिखाता, चिढ़ता। अब कोई नहीं है मेरे लिये उस डर को जीने वाला। अब कहीं चला जाता हूं, जंगल, पहाड़, हवा, पानी, आकाश कहीं भी। लेकिन कोई फोन नहीं आता, कोई नहीं पूछता कि कहां पहुंचे?
मैं तो यही चाहता था, मुझे तो अच्छा लगना चाहिए था, लेकिन नहीं लगता। पता नहीं क्यों।
एक मन में ख्याल आता रहा कि अगर इस सफर में कुछ हो जायेगा तो...फिर लगा क्या ही फर्क पड़ता है हो जाने दो...

जीने और मरने का फर्क अब मिटने लगा है धीरे-धीरे।

पंजाब जाने से पहले पहाड़ गया था। वहां भी तुम जहन में बने रहे। हमने साथ कितनी कम यात्राएँ की। तुम हमेशा कहते रहे और मैं डरता रहा और जाने से बचता रहा। अब समझ आता है, तुम्हें खोने से पहले कम से कम खूब सारी यात्राएँ ही कर ली होती, साथ पहाड़, समुद्र, नदी, जंगल देख लिया होता जीभर कर।

खैर, पहाड़ से उतरते हुए वो पुल दिख गया, जहां शायद तुम थे कुछ दिन पहले।
मन कैसा तो हो गया...पुल पर गया और अंदर से जोर से रोना आ गया...
अच्छा लगता है कि तुम जिन्दगी के हजारों रंग को पकड़ने की कोशिश में हूं...
मेरे साथ के बदरंग यादों को उम्मीद है वे हजारों रंग भुला पायेंगे...
शायद

खैर, फिर कभी...

PS- आजकल एक और बेवकूफी कर रहा हूं...तुम्हारे होने के हर संभव पतों पर जाकर तुम्हारी तस्वीरें देखता हूं..

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