Tuesday, February 13, 2018

ज़िंदगी का नशे में डूब मरना

आसान रहा ज़िंदगी को नशे में डूबते देखना और वजह किसी और को बता देना।
आसान समझता रहा तुम्हारा रोना। कि किसी बटन का दबाने जितना ही। ज़िंदगी को जितना सोचो, बस बीते हुए कल की याद आना।
ये सोचना कि क्यूँ ! और उस बड़े से क्यूँ का यूँ ही डूब मरना।
ज़िंदगी सिल्वीअ और वर्जिन्या के बीच झूलता रहा। लोग अपने हमसफ़र तय कर आगे बढ़ते रहे।
सिल्वीअ तुम कहाँ रह गए। क्या सच में किसी रोज़ दवा खाकर मर गए। या मैंने मारा।
वर्जिन्या भी तो मर रही है हर रोज़ थोड़ा थोड़ा।
बस बचा रह गया मैं पूरा पूरा - हर रोज़ नशे में होश खोता।
चिट्ठियाँ भेजी जाती रहीं। कोई सिरा पकड़ में न आ सका। डाइअरी की एंटरियाँ ठीक शहर में सर्दी शुरू होने से पहले बंद कर दी गयीं।
सर्दियाँ अब जाने को है । प्यार का महीना बीत रहा। लेकिन क्या मज़ाल कि एक पन्ने पर भी कुछ लिखा जा सका हो।

और ये दोस्त ये बुलबुले। ये अर्नस्ट ये बूकाउस्की। ये थे भी कि ख़ाली था भ्रम पाश के होने का, जिसने कहा था ख़तरनाक होता है सपनों का मर जाना।
जबकि उसे कहना था सबसे ख़तरनाक होता है प्रेम का न रह पाना और उससे ज़्यादा उसका न हो पाना और उससे भी ज़्यादा उसे न कर पाना।

भाक साला ज़िंदगी!!

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