Sunday, October 28, 2018

अक्टूबर की आखरी डायरी

अचानक सेे उसने टेबल लैम्प की बत्ती बंद कर दी। कमरे में पीली रौशनी की जगह घुप्प अंधेरे ने ले लिया। लड़का अँधेरे में ही चुपचाप खाने की कोशिश करता रहा। अचानक मन उदास हो चला। रोने जैसा कुछ हुआ। जबिक दिन काफी सुन्दर बीता था। देर रात तक जगकर उसने डेडलाइन से पहले ही अपना काम निपटा लिया था।


सुबह जगा तो खुद की बनायी चाय। काफी दिनों से लटकी एक मोटी किताब के कुछ चैप्टर और थोड़ा बहुत लिखना। दोपहर फिल्टर कॉफी और शतरंज का खेल। एक अच्छी किताब खरीदना। फिर वापिस लौटना। शाम की चाय अपने लोगों के साथ। और अब वापिस अपने ठिये पर।

लड़के की जिन्दगी में ऐसे सुकून के दिन कम ही होते हैं। ज्यादातर हड़बड़ी, शोर, भीड़ और अनमने होकर ही बीतते हैं। लेकिन फिर ऐसे सुकून में भी अजीब सी उदासी का अनुभव होने का क्या मतलब।


अचानक से उसे वे सारे याद आने लगे, जिन्होंने प्रेम किया, जिनसे प्रेम करने की उसने कोशिश की, जिनको वो प्रेम नहीं कर पाया और जो स्नेह के बीच में ही चले गए। कितने ही लोगों का चेहरा फ्लैशबैक में आने लगा।

उस रात अकेले खाते हुए उसे पहली बार लगा कि अकेले खाना दुनिया के चुनिंदा उदासियों में से एक है। उसे वो लड़की याद आ गयी, जो अक्सर कहा करती, ‘मैं अकेले नहीं खा पाती’ और लड़का झूंझला जाता। भूख से कैसे कोई समझौता कर सकता है। वो कभी समझ नहीं पाया भूख पर भी अकेलापन भारी हो सकता है।

कभी-कभी बहुत प्रेम से भरे लोग सामने होते हैं, लेकिन उनका प्रेम अनुपस्थित हो जाता है। ऐसा नहीं होता कि वे कहीं चले गए हों, या कि वे प्रेम करने की कोशिशों में न लगे हों, लेकिन सारी इच्छाओं और कोशिशों के होते हुए भी प्रेम रुक नहीं पाता और यह किसी के चले जाने से ज्यादा निराश करने वाली बात है कि प्रेम न रहे और लोग बचे रह जायें।

#अक्टूबर की आखरी डायरी



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