Monday, October 26, 2015

मानव का बौनापन



कभी-कभी लगता है मैं भी उसी जमात का हिस्सा हूं जो इस समय का सबसे बड़ा मीडियोकर की भूमिका में हैं। वो हर चीज के बीच में है। वह पूरा कुछ भी नहीं है। वह पूरा कुछ भी नहीं हो पाता। ऐसी जमात के लोग रह जाते हैं आधे-अधूरे हमेशा की तरह। वह कुछ लिखकर कभी लेखक हो जाते हैं, कुछ रिपोर्ट करके एक रिपोर्टर, कुछ नारे उछाल कर सोशल एक्टिविस्ट, कोई झंडा उठाकर राजनीतिक कार्यकर्ता, किसी नौकरी को करते हुए एनजीओ वाले, किसी नौकरी में बने रहने के लिये तमाम समझौते करते हुए एक मामूली समझौतापरस्त, कभी किसी सभा-सेमिनारों में बोलते हुए थोड़ी देर के लिये कोई क्रांतिकारी वक्ता, तमाम चुप रह जाने के क्षणों में सेल्फी अपलोड करने वाला आदमी, कभी इतिहास में किये गए अपने अच्छे कामों को प्रोजेक्ट बना फंड जुटाता एक आदमी, अखबारों के कॉलम में कभी-कभार देश-दुनिया के मुद्दों पर चिन्ता जताता एक आदमी। देश और दुनिया के लगभग तमाम मुद्दों पर बोलते हुए भी वह बोलता कम और चिल्लाता ज्यादा है- बिल्कुल किसी प्राईवेट खबरीया चैनल की तरह।

दरअसल वह सबकुछ होने की कोशिश में कुछ नहीं हो पाता। हज़ार जिन्दगी को जीते हुए भी वह उतना ही व्यर्थ होता है जितना कोई सुबह से शाम तक नौकरी कर, शाम को शराब के नशे में घर लौटने वाला कोई एक आदमी।

दरअसल यही आदमी का बौनापन है। महामानव की कल्पना करता आदमी एक लघु मानव जैसा ही है जो हर रोज जी जाने वाली जीवन के इर्द-गिर्द अपने संघर्ष को बुनता रहता है और वक्त मिलने पर सही खरीददार को बेच आता है। हम जैसे लोग उसी सही व़क्त के इन्तजार में होते हैं ताकि खुद के मीडियोकरी को बेचा जा सके। एक सुविधाजनक घेरे में बैठे रहकर, बिना किसी जमीनी मुहिम के वह सबकुछ हो जाना चाहते हैं--- और हो जाने को बेचना चाहता है।

कई बार अपने बौनेपन पर नज़र पहुंचती है तो अपना ही घाव बिज़बिजाता नज़र आने लगता है...

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