Sunday, October 25, 2015

लिखना-पढ़ना

इस बीच महसूस कर रहा हूं कि लिखने के प्रति भी मोह जाता रहा है। जमीनी कार्यवाहियों को छोड़कर लगभग सब कुछ बेमानी नजर आने लगा है। कल आईआईएमसी का एक जूनियर मिलने आ गया। मैंने उसे ढ़ेर सारे टिप्स दे दिये...और खूब सारा लिखने को भी कह दिया। लेकिन सच पूछो तो ये सब टिप्स..टैक्टिस किसी खास नौकरी और पेशे में आने वाले को दी गयी नसीहत मात्र है, जबकि सच्चाई है कि लिखना व्यर्थ सा होने लगा है।
इस बीच मन यह भी सोचने लगा है कि सारा कुछ लिखना..बोलना..कहना..सिर्फ और सिर्फ कुछ बन जाने भर के लिये किया जाने वाला प्रयास और क्रिया मात्र है। कोई लिखकर लेखक बनने का टैग चाहता है, कोई चिल्लाकर एक्टिविस्ट बनने का टैग चाहता है, कोई नाम के पीछे पत्रकार लिखा देखना चाहता है।
ऐसे में कोई लिखने को कह दे..तो मन टूट जाता है। पिछले लगभग महीने और उससे भी पहले के कुछ महीनों में गौर किया है कि लिखने से मन ऊबने लगा है। पिछले दिनों बिहार में था..एक दम जमीनी चुनावी अभियानों के अनुभवों के बीच लेकिन फिर भी वैसे कुछ नहीं लिख पाया..

एक नजर में यह सब एक नाकामी की तरह दिखता है। कई बार मन निराशा और अवसाद में बैठने लगता है, लेकिन जब लिखने के झंझटों से खुद को दूर करके देखता हूं तो पाता हूं कि रिलीफ़ जैसा है..एक अनकहा राहत है।
लेकिन ईमानदारी से देखा जाये तो कुछ बैचेनियां भी हैं। कुछ निराशाएँ भी हैं जो लिखने से रोक रही हैं। पिछले दिनों जिस तरह से मुस्लिमों-दलितों पर हमले और उनकी हत्या का मामला आया, जिस तरह पूरे देश में नफरत का माहौल आया है वह सब मिलकर घोर निराशा की तरफ धकेल रहे हैं।
बिहार चुनाव पर भी क्या ही कहा जाय..कई खेमों, जाति, धर्म के खाँचे में बँटे लोगों के बीच का एक चुनाव है..लोकतंत्र का उत्सव एक लिजलिजे सी राजनीतिक परिस्थितियों में मनाया जाना जारी है।
इस बीच सारी नैतिकता-अनैतिकता अपने-अपने सेलेक्टिव नजरिये से विरोध और समर्थन में बदलती जा रही है। हर तरफ फैन बनने, भक्ती करने वाले लोगों की बाढ़ है और पूछ भी।
ऐसे में एक मन होता है सबकुछ शटडाउन करके नीरव खामोशी में लीन हो जाओ..चुपचाप दुनिया के तमाशे को होते देखो और एक दिन इस तमाशे में शामिल होकर खत्म हो जाओ..बस

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