Saturday, February 18, 2017

Diary entry Feb 18

आज दिन भर रेख्ता में रहा। भीड़ में जाने-पहचाने लोगों से बचता हुआ, चुपचाप किसी कोने में बैठ लोगों को जूमआउट होकर देखने की कोशिश की...
फिर एक ख्याल आया मैं लोगों से कट रहा हूं, वैसे ही लोग भी तो मुझसे कट रहे होंगे...ज्यादातर बार हम अपने भ्रम में जीते हैं.
हमें लगता है हमें दुनिया से बचना है, जबकि सच्चाई होती है कि दुनिया में हमारा अपना ही कोई अस्तित्व नहीं..हम एक तिनका भी नहीं..

फिर ...

क्या हम लिखने के लोभ में चीजों को रोमेंटिसाइज कर देते हैं...ओवर रोमेंटिसाइज.. रियलिज्म से दूर..किसी ने कहा शॉ को पढ़ो निर्मल वर्मा को छोड़ो..शॉ चीजों को डिरोमेंटिसाइज करते हैं..
क्या सच में सारी समस्याओं की जड़ वही लिखने का मोह तो नहीं है..डर लगने लगा कहीं हम लिखने के मोह में खुद को ही खत्म न कर लें..
वैसे सही भी है दुनियादारी की नजर में देखो तो खुद के जीवन में कोई एक बिन्दू नहीं है जहां अभाव हो..अकेला रहना खुद का चुना है- सो उसपर भी बहुत शिकायत नहीं की जा सकती।
फिर ये दुख, ये खालीपन है क्या...
और अगर कोई भरा सा कुछ है तो वो क्या है...क्या है जिसे भरा सा कहा जाये...
लेकिन फिर लगता है हम शायद ही उतने रियलिस्टिक हो पायें..क्या खालीपन को भरने के लिये , अँधेरे में रौशनी के लिये रियल हो जाने की कोशिश बहुत उपरी हल जैसा नहीं...

कई बार लगता है दुनिया की तरफ देखना चाहिए....दुनिया के दुख में शामिल होना चाहिए...या तो अपना दुख कम हो जायेगा...या वो उसमें घुलमिल कर और बड़ा हो जायेगा..
लेकिन कुछ तो होगा..कुछ तो होगा जिसे महसूस किया जा सकेगा..
महसूस न किये जाने की फीलिंग भयानक है...फिलहाल सबकुछ उस अँधेरे के हवाले...जहां उजली रौशनी भी कुछ नहीं दिखा पा रही...

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